5/7/06

पुकारता है घर मेरा



इतने दिनों तक घर से दुर रहने के बाद घर की बहुत याद आती है। घरवालें, दोस्त, त्यौहार सभी कुछ।सभी पुकार-पुकार कर यहीं कहते है "अब तो आजा"।


पुकारता है घर मेरा
कहता है अब तो आजा।

वो रास्ते वो हर गली,
वो हर दर, वो दरवाजा,
करते है सब तकाजा,
कहते हैं अब तो आजा।

फाल्गुन की देखो होली,
उडधंग मचाती टोली,
होली के सारे रंग,
सब दोस्तो के संग,
करते है सब तकाजा,
कहते हैं अब तो आजा।

प्यारी सी मेरी बहना,
उसका भी है ये कहना,
मेरे प्यारे भईया राजा,
इस राखी पे घर को आजा,
मेरी बहना और उसकी राखी,
दोनो करती है यूँ तकाजा,
कहती हैं अब तो आजा।

प्यारी सी मेरी मईयाँ,
बनाती है जब सैवईयाँ,
कहती है जल्दी आजा,
जल्दी से आ के खाजा,
वो खीर वो पताशा,
करते है सब तकाजा,
कहते हैं अब तो आजा।

मेरी भाँज़ी और भाँज़ें,
सब उडधंग में है साँज़े,
कहते है देखो - मामा,
जल्दी से घर को आना,
और तोहफे हमारे लाना,
वो सब मुस्कुराकर ऐसे,
करते है यूँ तकाजा,
कहते हैं अब तो आजा।

प्रवीण परिहार

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आप रुलवाओगे क्या?? क्या क्या-अब तो रुलवा ही दिया...बहुत जबरदस्त.

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है । आपकी कविता पढ़ने समीर जी के चिट्ठे से पहुँची । समीर जी की कहानी एक सच्चाई है तो यह दूसरी । दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है । रिश्ते , समय, जीवन सब बदलते रहते हैं ।
चाहकर भी छूटे रिश्तों को हम वहाँ नहीं पहुँचा सकते जहाँ छोड़कर आए थे ।
घुघूती बासूती