8/8/06
विवाह
हमारे मानव समाज में विवाह की बहुत मानयता है। ये विवाह का विचित्र बन्धन सदियों से ही हमारे समाज का अंग रहा है। इस बन्धन को समझने का प्रयास मैं अपनी एस कविता में कर रहा हूँ।
विवाह
ये विवाह इक बन्धन ऐसा,
इक रेशम की डोरी जैसा,
इस डोरी में विश्वास का बल है,
हिमालय के पर्वत जैसा ।
इस बन्धन की आत्मा प्रेम है,
इस बन्धन के मायने प्रेम है,
दोनो ने इक होकर जाना,
वो दो जिस्म पर जान एक है।
इस बन्धन की गाँठ निराली,
जो कहो वो बात निराली,
घर सजे यूँ जैसे दिवाली,
और तुलसी वाली बात निराली।
इस बन्धन का रंग है पीला,
जिस पर छाया वो रंगीला,
इस रंग से दुल्हन शरमायी,
और देखो दुल्हा बना सजीला।
इस बन्धन के सात वचन,
जैसे सुर के सात भजन,
जिसने जाना इन वचनो को,
साथ रहे वो सात जनम।
प्यार-मौहब्बत धन-दोलत भारी,
तुम्हारी हो ये खुशीयाँ सारी,
इस बन्धन से सबकी यारी,
आज तुम्हारी कल हमारी बारी।
प्रवीण परिहार
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